घने कोहरे से आती
रोशनी की एक तीखी लहर
बिखर रही है बीच ही में कहीं
टकराकर किसी घुड़सवार की पीठ से जो…
जो, बढ़ता है धीरे धीरे मेरी तरफ़
ओढ़े ज़मीन छूती सफ़ेद चादर बदन पर
और ढकता चेहरे को ठोस एक नक़ाब से
आँखें नहीं जिससे, बस अँधेरा सा झाँकता नज़र आता है दूर से
और मैं बैठा, शिथिल हो देख रहा हूँ
मंज़र जो कभी ऐसा
कि रोंगटे भी डरकर बैठ सिकुड़ गये हैं खुद में
और कभी कि लगे खुद सराब बह चला हो प्यासे की तरफ़
सहम कर भी कुछ आतुर सा हूँ मैं
सुनने अगर कुछ कहना है इस सवार को मुझसे
बेपरवाह किसी नतीजे से, हर कदम की गम्भीर आहट
मैं सुन रहा हूँ टकटकी लगाये, सोचता
कि यही क्या अन्त है जो चल रहा था कहीं, उस सबका?
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अभिजीत
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